अपनी कुर्बानी पर उन्हें पछतावा होता होगा?

मराठवाड़ा निजाम के पंजों से आजाद हुआ ।  बिना किसी शर्त के हैदराबाद संस्थान महाराष्ट्र में समाहित हुआ । आज छह दशक बाद ६८ वां मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम दिवस मनाते समय उस संग्राम के लिए कुर्बानी देने वाले वे स्वतंत्रता सेनानी मराठवाड़ा की ओर मुड़ कर देखते होंगे, तो उनके मन में मराठवाड़ा की बदहाली देख क्या भाव घुमड़ते होंगे? अपनी कुर्बानियों का मराठवाड़ा को वैâसा सिला मिला, इस बात पर उनकी आंखों में निश्चित ही पछतावे के आंसू होंगे। पिछले एक दशक से निरंतर अकाल का सामना करता मराठवाड़ा, बुनियादी सुविधाओं से वंचित, मानव विकास सूचकांक, सिंचाई, बाल मृत्यु, स्त्री-पुरुषों में स्त्रियों का घटता दर आदि समस्त मानदंडों में पिछड़ते मराठवाड़ा को देख उनका मन निश्चित ही कराहता होगा ।

वास्तव में हैदराबाद मुक्तिसंग्राम भाषिक और सांस्कृतिक अस्मिता के मूलमंत्र पर हुआ था । वह महज आंदोलन नहीं था । बल्कि सामंतवाद और एकाधिकारशाही के खिलाफ व्यवस्था परिवर्तन की मांग करता विकास की अलग राहें तलाशने का मुक्तिसंग्राम था । वह महज विद्रोह नहीं था, जन-जागरण था, उसके पीछे भाषागत प्रांत रचना की प्रेरणा थी, नवजागरण था । पश्चिम महाराष्ट्र में शैक्षणिक एवं आर्थिक उन्नति हुई । समाज में चेतना जगाने का आंदोलन हुआ । उससे गोविंदभाई श्रॉफ से लेकर समस्त आजादी के मतवाले अभिभूत थे । आंदोलन से जुड़ने की उनकी दिली ख्वाईश थी । उन्हें पश्चिम महाराष्ट्र के नेताओं पर असीम भरोसा था । लगता था कि पश्चिम महाराष्ट्र के आंदोलन से जुड़ने पर मराठवाड़ा का भला होगा । लेकिन पश्चिम महाराष्ट्र के नेताओं ने उनका भरोसा तोड़ा । विश्वासघात किया । एक शंकरराव चव्हाण को छोड़ मराठवाड़ा के समस्त मुख्यमंत्री पश्चिम महाराष्ट्र के नेताओं के मोहजाल में पंâस कर रह गए । अब भी वही कुचक्र जारी है ।

इसका असर यों हुआ कि मराठवाड़ा सूखाग्रस्त होने के बावजूद गन्ना बोया गया । ७६ शक्कर कारखानों का निर्माण किया गया । आज उसमें से बमुश्किल एक दर्जन कारखाने शुरू हैं । शेष के ढांचे रह गए हैं । मशीनरी को जंग लग गया हैं । वही हाल शिक्षा संस्थाओं का हैं । शिक्षा माफियाओं ने निजी अभियांत्रिकी और पॉलीटेक्निक की इतनी फसल काटी कि इन कॉलेजों में छात्रों का सूखा पड़ गया । अंडे से मुर्गी बाहर आने से पहले उसे चट कर जाने की प्रवृत्ति सहकारिता क्षेत्र में इतनी परवान च़ढ़ी कि मराठवाड़ा की जिला सहकारी बैंकों का बैंड बज गया। इससे सारा सहकारिता क्षेत्र खतरे में पड़ गया। सहकारिता बैंकों का संजाल सुदूर देहातों तक पैâला हुआ था । उसके बिखर जाने से बैंक समाप्त होने के साथ-साथ किसानों को कर्ज मिलने की सुविधा भी हाथ से जाती रही । मराठवाड़ा के विकास का भी वहीं हश्र हुआ । ऊपरी तौर पर शरीर पूâला हुआ होने से किसी शख्स को हम नीरोगी मान लेते हैं, लेकिन वास्तव में वह भीतर सें खोखला होता है।

मराठवाड़ा के सामने दो बड़ी समस्याएं हैं । पहली समस्या यह कि उसकी प्रति एकड़ पैदावार घटना । मराठवाड़ा की तुलना में पश्चिम महाराष्ट्र में ढाई गुना ज्यादा बिजली का इस्तेमाल होता है और बिजली चोरी का आरोप हमारे सिर मढ़ा जाता है । पश्चिम महाराष्ट्र में ४६ प्रतिशत कृषि का रकबा है । इसके लिए ७६ प्रतिशत पानी का इस्तेमाल होता है । जबकि मराठवाड़ा में २६ प्रतिशत कृषि रकबे के लिए महज ६ प्रतिशत पानी का इस्तेमाल होता है ।

जायकवाड़ी जलाशय में पानी छोड़ने के लिए पश्चिम महाराष्ट्र के नेताओं की इनायत पर हम निर्भर है । इससे साहूकारी बढ़ी । ग्रामीण जीवन नष्टप्राय होने से छोटे-बड़े शहरों की आबादी बढ़ी। गांवों में सन्नाटा पसरने लगा । दूसरी अहम बात यह कि पश्चिम महाराष्ट्र की तुलना में मराठवाड़ा का तेजी से शहरीकरण हुआ । इस बीच वैधानिक विकास मंडल का दिखावा किया गया, तथापि सारा पैसा शेष महाराष्ट्र वैधानिक विकास मंडल ने डकार लिया । गोदावरी खोरे महामंडल में भी सेंध लग गई ।

मराठवाड़ा से संलग्न तेलंगाना इलाका भी अकाल से पीड़ित है । मराठवाड़ा से जुदा उसके हालात नहीं है । लेकिन राज्य के आजाद होते ही तेलंगाना तेजी से आगे बढ़ रहा है । तेलंगाना वाटर ग्रीड के माध्यम सें एक लाख किलोमीटर की पाइपलाइन से १६० टीएमसी पानी की आपूर्ति समूचे राज्य के गांवों को होगी । इसकी लागत ५२ हजार करोड रुपए होगी । गौरतलब हो कि मराठवाड़ा में ३२७० गांव आज भी जल योजना सें कोसों दूर है । 

निजाम ने अपने हैदराबाद संस्थान को जानबूझकर विकास से महरूम रखा । वह चाहता था कि लोक जितने अज्ञानी, गंवार रहेंगे, उतनी सामंतशाही, साहूकारी और राजसत्ता की नींव मजबूत होगी । लिहाजा मराठवाड़ा समेत तेलंगाना, आंंध्र प्रदेश भूभागों का विकास नहीं हो पाया इसी वास्तविकता को ध्यान में रख आंध्र प्रदेश के नेतृत्व ने विशेष कर चंद्राबाबू नायडू ने प्रयास किए । प्रदेश को सर्वाधिक वेंâद्रीय सहायता हासिल करने के लिए विशेष राज्य का दर्जा (स्पेशल वैâटेगरी स्टेट) घोषित करवा कर ही दम लिया । इससे कर्नाटक को वेंâद्र और राज्य की निधि ६०/४० हिस्सा देने का बंधन नहीं होगा । और तो और इस विशेष दर्जा से वेंâद्र सरकार की परियोजना में ९० प्रतिशत निधि वेंâद्र से हासिल होगी । इसके अच्छे परिणाम भी तेलंगाना को देखने को मिले । तेरह राष्ट्रीय संस्थाओें को मान्यता मिलीं । उसमें से दस संस्थाएं कार्यान्वित भी हो गई हैं । अलावा इसके हिंदुस्थान पेट्रोकेमिकल्स तथा पेट्रोलियम विश्वविद्यालय के लिए ५२ हजार करोड रुपए का पूंजी निवेश हुआ । सड़क विकास के लिए ६४ हजार करोड रुपए सागर नौका तल के लिए ३९६६ करोड़ रुपए तथा एक हजार करोड़ रुपए कृष्णा जिले के मिसाइल निर्माण यूनिट के लिए मुहैया कराए गए। इसके विपरीत कृषकों की आत्महत्याओं के लिए कुचर्चित भूमि मराठवाड़ा को राज्य के सहायता प्रस्ताव पर १४ वें वित्त आयोग के बहाने राष्ट्रीय आपदा निधि से सहायता सिरे से नकार दी गई । प्याज के मामले में भी यही हुआ । प्रचुर मात्रा में उत्पादन होने के बावजूद आयात-निर्यात के करारे झटके से आहत प्याज के लिए वेंâद्र से प्रति क्विंटल १०० रुपए अनुदान मांगा गया, लेकिन राज्य के अपने हिस्से की राशि अदायगी की असमर्थता के चलते उसे भी नकार दिया गया । इसके विपरीत हैदराबाद की मंडियों में प्याज को अच्छा दाम मिला ।

मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम दिवस पर हमें इस वास्तविकता को भूलना नहीं चाहिए कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की तरह मराठवाड़ा भी कभी हैदराबाद संस्थान का अंग था । बिना किसी शर्त के शामिल होकर तथा नि:स्पृहता से, भरोसे के साथ बड़ी उम्मीद से महाराष्ट्र में शामिल मराठवाड़ा के नसीब में पिछड़ेपन का दर्जा तो छोड़ो, उपेक्षा ही आयी । तत्कालीन स्वतंत्रता सेनानियों को अपने उस कदम पर आज भी पछतावा हो रहा होगा । एैसे में अभी समय रहते आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से सबक लेकर मराठवाड़ा को पश्चिम महाराष्ट्र के मृगजल के छलावे से दूर रहकर अपना हित सोचना होगा ।